वस्तु का स्वरूप जानने का रहस्य
वस्तु का स्वरूप जानने का रहस्य वस्तु में ही छुपा है और उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण कि उसे जानने के लिए आपके पास आपके ज्ञान के सिवा कोई अन्य द्रव्य मौजूद नहीं है। अर्थात यदि कुछ भी जानना है वह दो तरीके से जाना जा सकता है —
- १. अपने स्व द्रव्य के स्वरूप को जानों और तब उसमें झलके प्रतिबिंब में स्व और अन्य पदार्थों को जानों
- २. अपने स्व द्रव्य के स्वरूप को न जानों और तब उसमें झलके प्रतिबिंब में अन्य को जानों और अन्य की अपेक्षा से स्व को जानने का प्रयास करों।
पहला तरीका सम्यक ज्ञान है और दूसरा तरीका मिथ्या ज्ञान है। मिथ्या ज्ञान में ज्ञान का आभास होता है और मात्र वस्तु की वर्तमान पर्याय और मात्र कुछ पूर्व पर्यायों का याद रह जाना। उसके आधार से वस्तु को जानते है। इसलिए दूसरा तरीका नियम से मिथ्या ज्ञान ही होगा।
सम्यक जानने के लिए वस्तु के कुछ सिद्धांत जो स्व द्रव्य पर भी लगते है उसे जानना ही नहीं अपितु श्रद्धना और अनुभव करना भी आवश्यक है। क्योंकि ज्ञान सहज होता है उसे करना या करवाना नहीं पड़ता। जैसे दर्पण को सामने रखने से जो उसके सामने होता है उसका प्रतिबिंब सहज ही प्रगट हो जाता है उसी प्रकार स्व द्रव्य के सामने सम्पूर्ण ज्ञान अर्थात केवल ज्ञान का प्रगट होना सहज ही होता है करना या करवाना नहीं पड़ता।
अर्थात केवल ज्ञान का प्रगट होना सहज है और जो राग और द्वेष के कारण कर्ता बुद्धि का जो श्रद्धान अंतरंग में पड़ा है उसे हटाना ही सम्यक ज्ञान की पहली सीढ़ी है।
जो ज्ञान हम जानते है अर्थात मिथ्या ज्ञान वह नियम से एकत्व, ममत्व , कृतत्व और भोकृत्व रूप मिथ्या श्रद्धान के कारण कर्ता बुद्धि का ही बोध कराती है।
इस बुद्धि को छोड़ने पर ही सहजता का अनुभव होगा और सहजता के बिना सम्यक ज्ञान तीन काल प्रगट नहीं होगा। सम्यक ज्ञान प्रगट करने की बुद्धि भी कर्ता बुद्धि है। जो ज्ञान सहज प्रगट होता है उसको करना नहीं पड़ता क्योंकि वह वस्तु का स्वभाव है।
वस्तु के स्वरूप के लिए वस्तु का स्वभाव जानना उतना ही आवश्यक है क्योंकि वस्तु के होने का प्रत्यय अर्थात जो कारण होता है और उसका जब कोई उत्तर ना मिले अर्थात उसका कोई निमित्त कारण ना मिले तो वह स्वभाव होता है। निमित्त पर तो मात्र आरोप आता है लेकिन वस्तु में जो होता है वह उसके स्वयं के उपादान कारण से होता है।
वस्तु का होना उसके अस्तित्व को दर्शाता है अर्थात मैं जान रहा हूं अन्य कोई नहीं यह मेरे होने का सबसे बड़ा वजूद है अर्थात मेरा भी अस्तित्व है और मेरे होने को कोई कारण नहीं अर्थात यह अस्तित्व पना मेरा स्वभाव है।
अहो जैसे मैंने मेरे अस्तित्व को बिना किसी निमित्त के जाना ऐसा ही मेरे अनंत गुणों को जानने का प्रयास करना ही सम्यकत्व की सीढ़ी है।
अहो जैसे अस्तित्व के लिए कोई अन्य कर्ता नहीं वैसे ही मेरे किसी भी कार्य के लिए कोई अन्य कैसे कर्ता हो सकता है। मेरी पर्याय का मैं ही कारण हूं और यदि उसमें निमित्त कारण दिखें तो फिर दो बातें होती है —
- १. या तो वह मेरा मिथ्या ज्ञान है अर्थात मेरे ज्ञान अर्थात ज्ञाता दृष्टा स्वभाव को अन्य का मानना
- २. या तो मैंने किसी अन्य द्रव्य के कार्य को अपना माना
इसके सिवा मैं कोई अन्य भूल करने में समर्थ नहीं। सारा मिथ्या ज्ञान और उसके भेद प्रभेद सब इसी मिथ्या ज्ञान के ही भेद है।
इस मिथ्या ज्ञान का एक प्रत्यय है और वह मोह है । मोह वश ही मैं ऐसा कर सकता हूं और जो मोह वश नहीं अर्थात स्वभाव वश सहज है उसका नाम ही वीतरागता है।
अर्थात मेरा प्रत्येक कार्य वीतरागता का द्योतक होना चाहिए।
वीतरागता के बिना सारा ज्ञान मोह वश अर्थात राग और द्वेष युक्त है अर्थात वह सारा ज्ञान कर्ता बुद्धि सहित है। जहां कर्ता बुद्धि होती है नियम से पर में एकत्व, ममत्व, कृतत्त्व और भोकृत्व अवश्य है। बिना वीतरागता के अभाव के मोह संभव नहीं और बिना मोह के राग और द्वेष संभव नहीं, बिना राग और द्वेष के कर्ता बुद्धि संभव नहीं और बिना कर्ता बुद्धि के मिथ्यात्व संभव नहीं।
अर्थात वीतरागता अर्थात निष्पक्ष भाव अर्थात उसका कोई आधार होना आवश्यक है क्योंकि पर्याय बिना द्रव्य के आधार के हो सकती नहीं। और आधार उसी का हो सकता है जो परमानेंट अर्थात नित्य हो अर्थात ध्रुव क्योंकि उसके बिना पर्याय टिक नहीं सकती। जो जिसमें होता है प्राप्ति उसी में से होती है। प्राप्ति का आधार प्राप्य में से ही होता है।
प्राप्ति से प्राप्य की सिद्धि होती है क्योंकि मिथ्या ज्ञान मात्र प्राप्ति को जानता है इसलिए प्राप्ति के आधार पर प्राप्य का निर्णय करना आवश्यक है। प्रति समय मैं ज्ञाता दृष्टा हूं ऐसी मुझे नियम से प्रति समय प्राप्ति है अर्थात मेरा वजूद है और जिसमें से ज्ञान उपज रहा है वह मैं हूं और उसकी सत्ता का श्रद्धान और उसका ज्ञान और उसका अनुभव प्रति समय हो रहा है लेकिन सूक्ष्म होने के कारण पकड़ में नहीं आ रहा है क्योंकि मुख्यता प्रतिबिंब और एक समय की पर्याय पर जा रही है। अहो जो प्रतिबिंब झलक रहा है वह भले पर के निमित्त से हो रहा है लेकिन उसकी ज्ञान रूप निर्मल रचना का कर्ता मैं स्वयं हूं। उसमें मोह वश राग और द्वेष की रचना का कर्ता मैं स्वयं हूं जो मेरी भूल है । मोह मेरा स्वभाव नहीं क्योंकि वह मेरा विभाव है।
विभाव- कर्मों के उदयसे होने वाले जीव के रागादि विकारी भावों को विभाव कहते है | निममित्तकी अपेक्षा कथन करनेपर ये कर्मों के है और जीवकी अपेक्षा कथन करनेपर में जीवके है| संगोगी होनेके कारण वास्तवमें ये किसो एकके नहीं कहे जा सकते ॥ वास्तव इनकी सत्ता ही नही है ।
अहो ऐसा ही विभाव का स्वरूप है। अर्थात जो सामने अस्तित्व में ही नहीं है उस सत्ता का ज्ञान में झलकना ही विभाव है। जिस प्रकार दर्पण में वह झलकने लग जाए जो उसके सामने है ही नहीं या फिर जैसा है वह वैसा नहीं। तो वह दर्पण दर्पण नहीं अपितु मोह ग्रस्त अर्थात अवतल और अनवतल दर्पण कहलाएगा। जब कोई ऐसा दर्पण खरीदता है तो वह जानता है कि इसमें झलकने वाला प्रतिबिंब अस्तित्व में ही नहीं है। लेकिन जब मैं स्वयं राग और द्वेष से ग्रसित संबंधों को देखता हूं तो वह विभाव रूप है लेकिन अस्तित्व में नहीं है। ऐसा ज्ञान विभाव रूप है। विभाव कर्ता बुद्धि से प्रगट होता है। विभाव को विभाव जानने का पुरुषार्थ ही भेद ज्ञान है। इसमें पर का किंचित भी कुछ नहीं।
भाव –चेतन व अचेतन सभी द्वव्य के अनेकों स्वभाव है। वे सब उसके भाव कहलाते है । जीव प्रमाण की अपेक्षा उनके पॉच भाव है– औदायिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक । कर्मोके उदयसे होनेवाले रागादि माव औदायिक | उनके उपशमसे होनेवाले सम्सक्त्व व.चारित्र औपशमिक है । उनके क्षयसे होनेवाले केवलज्ञानादि क्षायिक है । उनके क्षयोपशमसे होनेवालें मति ज्ञान आदि क्षायोपशमिक है। और कमोके उदय आदिसे निरपेक्ष चैतन्यत्व आदि भाव पारिणामिक है। एक जीव में एक समयमें भिन्न-भिन्न गुणों की अपेक्षा भिन्न-भिन्न गुणस्थानों में यथायोग्य भाव पाए जाने सम्भव है, जिनके संयोगी भंगों को सन्नितपाती भाव कहते हैं। पुद्दगल द्रव्य में औदयिक, क्षायिक व पारिणामिक ये तीन भाव तथा शेष चार द्वव्यो में केवल एक पारिणामिक भाव ही सम्भव है ।
भेदज्ञान : जीवादि सातों तत्त्वों में सुख आदि की अर्थात् स्व तत्त्व की स्वसंवेदनगम्य पृथक प्रतीति होना भेदज्ञान है ।
जो ज्ञान वस्तु के रूपको न्यूनतारहित तथा अधिकतारहित, विपरीततारहित, जैसा – का तैसा, संन्देह रहित जानता है, उसको आगमके ज्ञाता पुरुष सम्यक ज्ञान कहते हैं ।
सम्यक ज्ञान विमोह अर्थात अंध्यवसाय (अंधकार रूप) रहित, संशय (मिलावट या मिश्रित रूप) रहित और विपर्यय (विपरीतता रूप) रहित होता है।