चारित्र
जो आचरण करता है अथवा जिसके द्वारा आचरण किया जाता है अथवा आचरण करना मात्र चारित्र है। अपने हित को प्राप्त करते है और अहित का निवारण करते है उसको चारित्र कहते हैं अथवा सज्जन जिसका आचरण करते है। संसार की कारण भूत बाह्य और अंतरंग क्रियाओं से निवृत्त होना चारित्र है। स्वरूप में रमना सो चारित्र है। स्वसमय में अर्थात् स्वभाव में प्रवृत्ति करना यह इसका अर्थ है। यह वस्तु (आत्मा) का स्वभाव होने से धर्म है। स्वचारित्र अर्थात् सम्यक् चारित्र और परचारित्र अर्थात् मिथ्याचारित्र। जिस भाव से आत्मा को पुण्य अथवा पाप आस्रवित होते है। उस भाव द्वारा वह (जीव) पर चारित्र है जो परद्रव्यात्मक भाव से रहित स्वरूप वाला वर्तता हुआ दर्शन ज्ञान रूप भेद को आत्मा से अभेदरूप आचरण है वह स्वचारित्र को आचरता है। चारित्रमोह के उपशम, क्षय व क्षयोपशम से होने वाली आत्म विशुद्धि की दृष्टि से चारित्र एक है। बाह्य व आभ्यन्तर निवृत्ति अथवा व्यवहार व निश्चय की अपेक्षा दो प्रकार का है या प्राण संयम व इन्द्रिय संयम की अपेक्षा दो प्रकार का है। औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से तीन प्रकार का है। छद्मस्थों का सराग और वीतराग और सर्वज्ञों का सयोग और अयोग इस तरह चार प्रकार का है। सामायिक छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात के भेद से पाँच प्रकार का है।