जो परम-पद में स्थित हैं वे परमेष्ठी कहलाते हैं । अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु- ये पंच परमेष्ठी हैं ।
तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप, दीक्षा/निष्क्रमण और निर्वाणकल्याण । इन कल्याणकों के समय सोलह स्वर्गों के देव और इंद्र स्वयमेव आते हैं । तीर्थंकर प्रकृति के प्रभाव से स्वर्ग से पृथ्वी पर अवतार लेने के छ: माह पूर्व से …
जो जिनेन्द्र गर्भावतरण काल, जन्मकाल, निष्क्रमणकाल, केवलज्ञानोत्पत्तिकाल और निर्वाणकाल, इन पाँचों स्थानों (कालों) में पाँच महाकल्याणकों को प्राप्त होकर महाऋद्धियुक्त सुरेन्द्र इन्द्रों से पूजित है।
एक व्रत । इसमें आवश्यक (षडावश्यक) कार्य करते हुए चौबीस तीर्थंकरों के पाँच कल्याणकों की 120 तिथियों के 120 उपवास किये जाते हैं । हरिवंशपुराण 34.111 पूर्व पृष्ठ अगला पृष्ठ