जो रत्नत्रय से पवित्र हैं ऐसे मुनिजनों के मलिन शरीर को देखकर घृणा नहीं करना और उनके गुणों के प्रति प्रीति रखना यह सम्यग्दर्शन का निर्विचिकित्सा अंग है।
जीवों के मुख से निकले हुए शब्द की निर्वृत्ति अक्षर संज्ञा है, उस निर्वृत्ति अक्षर के व्यक्त और अव्यक्त ऐसे दो भेद हैं, उसमें से व्यक्त निर्वृत्ति अक्षर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तिकों के होता है। अव्यक्त निर्वृत्ति अक्षर दो इन्द्रिय से …
रचना का नाम निर्वृत्ति है जो कर्म के द्वारा होती है। वह दो प्रकार की है- बाह्य और अभ्यन्तर। उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और प्रतिनियत चक्षु आदि इन्द्रियों के आकार रूप से अवस्थित शुद्ध आत्मप्रदेशों की रचना को अभ्यन्तर …
कर्त्ता के द्वारा जो पहले न हो, ऐसा नवीन कुछ उत्पन्न किया जाये सो कर्त्ता का निर्वृत्य कर्म है, जैसे- घट बनाना । कर्त्ता के द्वारा पदार्थ में विकार ( परिवर्तन) करके जो कुछ किया जाये, वह कर्त्ता का विकार्य …
संसार शरीर और भोगों से वैराग्य उत्पन्न कराने वाली कथा को निर्वेजनी कथा कहते हैं।