जीवों को पीड़ा पहुंचाने वाली प्रवृत्ति करना आरम्भ है अथवा प्राणियों के प्राणों का वियोग करना आरम्भ कहलाता है।
छेदना, भेदना और रचना आदि की क्रियाओं में तत्पर रहना और दूसरे के करने पर हर्षित होना आरम्भ क्रिया है ।
सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण करने के उपरांत जीवन पर्यन्त जीव हिंसा के कारणभूत नौकरी, खेती, व्यापारादि आरम्भ नहीं करने की प्रतिज्ञा लेना, यह श्रावक की आरम्भ – त्याग नामक आठवीं प्रतिमा है।