स्थितिबंध
जिसका जो स्वभाव उससे च्युत न होना स्थिति है। जिस प्रकार बकरी, गाय, भैंस आदि के दूध का माधुर्य स्वभाव से च्युत न होना स्थिति है उसी प्रकार ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का पदार्थ का ज्ञान न होने देना आदि स्वभाव से च्युत न होना स्थितिबंध है अथवा योग के निमित्त से कर्मरूप से परिणत पुद्गल स्कंधों का कषाय के वश से जीव में एक रूप से रहने के काल को स्थिति कहते हैं। स्थिति के दो भेद हैं उत्कृष्ट और जघन्य | आयुत्रिक अर्थात् तिर्यग् मनुष्य व देवायु को छोड़कर शेष सब कर्म प्रकृतियों की स्थिति का उत्कृष्ट बंध उत्कृष्ट संक्लेश से होता है और उनका जघन्य स्थितिबन्ध संक्लेश के कम होने से होता है तीन आयु अर्थात् तिर्यग् मनुष्य व देवायु का उत्कृष्ट स्थितिबंध उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामों से और जघन्य स्थितिबंध उससे कम संक्लेश परिणाम से होता है। मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय कर्म की तीस कोड़ाकोड़ी सागर तथा आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर प्रमाण है मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय अन्तराय और आयु कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। वेदनीय की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त एवं नाम व गोत्र कर्म जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त है।