संसार
संसरण करने अर्थात् जन्म-मरण रूप परिवर्तन करने का नाम संसार है अथवा कर्म के विपाक के वश से आत्मा को भवान्तर की प्राप्ति होना संसार है जीव एक शरीर को छोड़ता है और दूसरे नए शरीर को ग्रहण करता है पश्चात् उसे भी छोड़कर दूसरा नया शरीर धारण करता है इस प्रकार अनेक बार शरीर को ग्रहण करता है और अनेक बार उसे छोड़ता है। मिथ्यात्व आदि कर्मों से युक्त जीव का इस प्रकार अनेक शरीरों में जो संसरण, परिभ्रमण होता है उसे संसार कहते हैं । अनादिकाल से जन्ममरण करते हुए जीव ने एक-एक करके लोक के सर्व परमाणुओं को, आकाश के सर्व प्रदेशों को, काल के सर्व समयों को, सर्व प्रकार के कषाय भावों को और नरक आदि सर्व भवों को अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ा है इस कारण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव के भेद से यह संसार पाँच परिवर्तन रूप भी कहा गया है हालांकि निरन्तर कुछ जीव संसार से मुक्त होते रहते हैं तो भी संसार जीवों से रिक्त नहीं हो सकता क्योंकि संसार में जीव राशि अक्षय-अनन्त है जितने जीव मोक्ष जाते हैं उतने ही निगोद से निकल कर व्यवहार राशि में आ जाते हैं अतएव निगोदराशि में से जीवों के निकलते रहने के कारण संसारी जीवों का कभी क्षय नहीं हो सकता। जितने जीव अब तक मोक्ष गए हैं और आगे जाने वाले हैं वे निगोद जीवों के अनन्तवें भाग भी नहीं है।