संसक्त साधु
इन्द्रिय और कषायों के दोष से अथवा सामान्य ध्यानादिक से विरक्त होकर जो साधु चारित्र से भ्रष्ट होता है वह साधु सार्थ से अलग होता है। इन्द्रिय विषय और कषाय के वशीभूत कितनेक भ्रष्ट मुनि सर्व दोष से युक्त होकर सर्व अशुभ स्थान को प्राप्त कराने वाले परिणामों को होने से वे संसक्त साधु कहलाते हैं। जो मंत्र, वैद्यक या ज्योतिष शास्त्र से अपनी जीविका करते हैं और राजा आदिकों की सेवा करते हैं वे संसक्त साधु हैं। ऐसे मुनि चारित्र प्रिय मुनि के सहवास से चारित्र प्रिय और चारित्र अप्रिय मुनि के सहवास से चारित्र अप्रिय बनते हैं। नट के समान इनका आचरण रहता है। ये संसक्त मुनि इन्द्रियों के विषयों में आसक्त रहते हैं तथा तीन प्रकार के गारवों में आसक्त रहते हैं। स्त्री के विषय में इनके परिणाम संक्लेश युक्त होते हैं। गृहस्थों पर इनका विशेष प्रेम होता है।