संगति
मन की पवित्रता और कर्मों की पवित्रता आदमी की संगति की पवित्रता पर निर्भर है। कुशील भी सद्गोष्ठी से सुशील हो जाता है। जैसे— मलिन जल भी कतक फल के संयोग से स्वच्छ होता है, वैसा ही कलुष मोह भी शील वृद्धों के संसर्ग से शांत होता है। वृद्धों के संसर्ग से तरुण मनुष्य भी शीघ्र ही शील गुणों की वृद्धि होने से शील वृद्ध बनता है। लज्जा से, भीति से अभिमान से, अपमान के डर से, और धर्म बुद्धि से तरुण मनुष्य भी वृद्ध बनता है। जैसे बछड़े के स्पर्श से गौ के स्तन में दूध उत्पन्न होता है वैसे ज्ञानवृद्ध, तपोवृद्ध वयोवृद्ध के सहवास से तरुण के मन में भी वैराग्य उत्पन्न होता है। दुर्जन मनुष्य सज्जनों के सहवास से पूर्व दोषों को छोड़कर गुणों से युक्त होता है। जैसे कौआ, मेऊ का आश्रय लेने से स्वाभाविक मलिनकांति को छोड़कर स्वर्ण कांति का आश्रय लेता है। सज्जनों में रहने वाला दुर्जन भी पूजा जाता है। गंध युक्त कस्तूरी, चंदन वगैरह पदार्थों के सहवास से कृत्रिम गंध भी पूर्व से भी अधिक सुगंधयुक्त होता है। ये ही सत्संगति का महात्म्य है।