वैक्रियिक शरीर
अणिमा, महिमा आदि आठ गुणों के सम्बन्ध से एक, अनेक छोटा, बड़ा आदि अनेक प्रकार का शरीर बना लेना विक्रिया कहलाती है और वह विक्रिया जिस शरीर का प्रयोजन है वह वैक्रियिक शरीर है। वैक्रियिक शरीर उपपाद जन्म से पैदा होता है तथा लब्धि (ऋद्धि) से भी उत्पन्न होता है। देव नारकियों को उपपाद जन्म से वैक्रियिक शरीर पैदा होता है तेजस्कायिक व वायुकायिक जीवों को और किन्हीं-किन्हीं संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यों को जो वैक्रियिक शरीर होता है, वह औदारिक शरीर की विक्रिया रूप होता है जिन जीवों के औदारिक शरीर ही विक्रयात्मक होते हैं ऐसे मनुष्य व तिर्यंच अपृथक विक्रिया के द्वारा ही परिणमन करते हैं परन्तु भोग भूमिज जीव और चक्रवर्ती पृथक विक्रिया भी करते हैं। भवनवासी, व्यन्तर व ज्योतिषी व सोलह स्वर्ग के देवों के एकत्व व पृथक्त्व दोनों प्रकार की विक्रिया होती है ग्रैवेयक आदि सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त के देवों के प्रशस्त एकत्व विक्रिया ही होती है छठे नरक तक के नारकी जीवों के एकत्व विक्रिया त्रिशुल चक्र आदि रूप होती है सातवें नरक में कीड़े रक्त पीव आदि रूप से एकत्व विक्रिया होती है तिर्यंचों में मयूर आदि रूप एकत्व विक्रिया ही होती है पृथक्त्व विक्रिया नहीं होती। मनुष्य के तप और विद्या की प्रधानता से एकत्व व पृथक्त्व दोनों रूप विक्रिया होती है।