विरोध
अनुपलब्ध अर्थात् अभाव के साध्य कोविरोध कहते हैं। विरोध तीन प्रकार का है। बध्यघातक भाव, सहानवस्थान, प्रतिबन्धक भाव, बध्यघातक भाव, विरोध सप्र और नेवले या अग्नि या जल में होता है। यह दो विद्यमान पदार्थों में सहयोग होने पर होता है । सहयोग के बाद जो बलवान होता है, वह निर्बल को बाधित करता है। अग्नि से असंयुक्त जल, अग्नि को नहीं बुझा सकता। सहानवस्थान विरोध एक वस्तु की क्रम से होने वाली दो पर्यायों में होता है। नई पर्याय उत्पन्न होती है तो पूर्व पर्याय नष्ट हो जाती है। जैसे— आम का हरा रूप नष्ट होता है और पीत रूप उत्पन्न होता है। प्रतिबन्धक भाव विरोध ऐसे हैं, जैसे – आम का फल जब तक डाल में लगा हुआ है, तब तक फल और डंठल का सहयोग रूप प्रतिबंधक के रहने से गुरुत्व मौजूद रहने पर भी आम नीचे नहीं गिरता। जब सहयोग टूट जाता है, तब गुरुत्व फल को नीचे गिरा देता है। सहयोग के अभाव को गुरुत्व पतन का कारण है यह सिद्धांत है। अथवा जैसे दाह के प्रतिबंधक चंद्रकांत मणि के विद्यमान रहते, अग्नि से दाह क्रिया नहीं उत्पन्न होती, इसलिए मणि और दाह के प्रतिबंधक भावयुक्त है। ज्ञान को मान लेने पर सब पदार्थों का शून्यपना नहीं बन पाता है और सबका शून्यपना मान लेने पर स्वसंवेदन की सत्ता नहीं ठहरती है, यह तुल्यबल वाला विरोध है।