वाणी
शब्दाद्वैतवादी वाणी चार प्रकार की मानते हैं— पश्यन्ती, मध्यमा, वैखरी और सूक्ष्मा । पश्यन्तीजिसमें विभाग नहीं हैं, सब तरह से संकोचा है क्रम जिसमें, ऐसी पश्यन्ती कहिये । लब्धि के अनुसार द्रव्य वचन को कारण जो उपयोग। (जैन धर्म के अनुसार इसे ही उपयोगात्मक भाव वचन कहते हैं)। मध्यमा जिसका उपादान कारण वक्ता की बुद्धि है और जो श्वांसोच्छवास को उल्लंघन करके अनुक्रम से होती है, उसको मध्यमा कहते हैं। शब्द वर्गणा रूप द्रव्य वचन। (जैन धर्म के अनुसार इसे शब्द वर्गणा कहते हैं ) । वैखरी – कण्ठ आदि के स्थान को भेद कर जो वायु निकलती है, ऐसा जो वक्ता का श्वांसोच्छवास कारण जिसका, ऐसी अक्षर रूप प्रवृत्ति हुई वैखरी वाणी है। अर्थात् कर्ण इन्द्रिय ग्राही पर्याय स्वरूप वचन। (जैन धर्म के अनुसार उसे इसी नाम से स्वीकारा गया है)। सूक्ष्मा- अन्तर प्रकाश रूप स्वरूप ज्योतिरूप नित्य ऐसी सूक्ष्मा कहिए । क्षयोपशम से प्रकटी आत्मा की अक्षर को ग्रहण करने की तथा कहने की शक्ति रूप लब्धि। (जैन धर्म के अनुसार इसे लब्धि रूप भाव वचन स्वीकारा गया है) ।