लोकानुप्रेक्षा
परमात्मा के निर्मल केवलज्ञान रूपी नेत्र में दप्रण के समान जीव आदि समस्त पदार्थ प्रतिबिंबित आलोकित होते हैं इसलिए शुद्धात्मा ही वास्तव में लोक है और निज शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न परम आल्हाद रुपी अमृत के आस्वाद से जो भावना होती है वही वास्तव में लोकानुप्रेक्षा है। अथवा यह लोक षट् द्रव्यमयी है, चौदह राजू ऊँचा है, पुरुषाकार है इसे किसी ने बनाया नहीं है न कोई इसे धारण किये हुए है और न ही कोई इसे मिटाने वाला है। यह तो शाश्वत है। इस लोक में जीव समता भाव के अभाव में अनेक प्रकार से दुख उठाता है । इस प्रकार लोक स्वरूप का बार-बार चिन्तवन करना लोकानुप्रेक्षा है।