राग
चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से इष्ट पदार्थों में प्रीति रूप परिणाम होना राग है रागभाव चारित्रावरण मोहनीय कर्म के उदय से होता है तथा यह राग अप्रमत्त गुणस्थान के पहले पाया जाता है अप्रमत्त गुणस्थान से ऊपर के गुणस्थानों में अबुद्धिपूर्वक सूक्ष्मराग होता है जो क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान से पहले होता है अप्रमत्त गुणस्थान से तीन सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान तक होने वाला रागभाव सूक्ष्म होने से बुद्धिगम्य नहीं है। राग दो प्रकार का है – प्रशस्त और अप्रशस्त । रत्नत्रय के साधन विषयक रागभाव से स्वर्ग व मोक्ष की प्राप्ति देखी जाती है अतः ऐसा प्रशस्त राग कथंचित् इष्ट है । अर्हन्त सिद्ध साधुओं के प्रति भक्ति धर्म में यथार्थतया प्रयत्न और गुरूओं का अनुगमन प्रशस्त राग कहलाता है। प्रशस्त राग और चित्तप्रसाद जहाँ हैं वहाँ शुभ परिणाम हैं। चारित्र मोहनीय कर्म के मद उदय से होने वाला विशुद्ध परिणाम चित्तप्रसाद कहलाता है। इससे विपरीत इन्द्रिक विषयों में आसक्ति होना, उन्मार्ग पर चलना, कुसंगति करना अप्रशस्त राग है। मोह, द्वेष और अप्रशस्तराग जहाँ हैं वहाँ अशुभ परिणाम हैं।