योगस्पर्धक
जिसमें क्रमवृद्धि और क्रमहानि होती है वह स्पर्धक कहलाता है। यहाँ क्रम का अर्थ अपने-अपने जघन्य वर्ग के अविभागी प्रतिच्छेद की वृद्धि और उत्कृष्ट वर्ग के अविभाग प्रतिच्छेदों से एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद की जो हानि होती है, उसे क्रम कहते हैं। दो या तीन आदि अविभाग प्रतिच्छेदों की हानि या वृद्धि का नाम अक्रम है। स्पर्धक प्ररूपणा के अनुसार श्रेणी के असंख्यातवें भाग मात्र जो असंख्यात वर्गणाएँ हैं उनका एक स्पर्धक होती है। (योगस्थान के प्रकरण में)