योग संक्रांति
मन, वचन और काय इन तीनों योगों में से किसी एक योग से दूसरे योग में जो परिणाम हैं, उसको वीचार कहते हैं। संक्रांति के होने पर ध्यान कैसे संभव है ऐसा प्रश्न पूछने पर आचार्य उत्तर देते हैं कि ध्यान की संतति को भी ध्यान कहा जाता है इसमें कोई दोष नहीं है। अन्तर्मुहूर्त बाद चिन्तान्तर या ध्यानान्तर या चिरकाल तक बहुत पदार्थों का संक्रम होने पर भी एक ही ध्यान संतान होती है। जो ध्यानी अर्थ व्यंजन आदि योगों में जैसे शीघ्रता से संक्रम करता है वह ध्यानी अपने आप उसी प्रकार अल्पकाल होने पर ध्यान संतति की प्रतीति नहीं करता। यद्यपि पृथकवितर्क वीचार ध्यान में योग की संक्रांति रूप से चंचलता वर्तती है फिर भी यह ध्यानी है। यह ध्यान ही है क्योंकि इस ध्यान में इसी प्रकार की विवक्षा है और विजातीय अनेक विकल्पों से रहित तथा अर्थ आदि के संक्रमण द्वारा चिन्ता प्रबन्धक इस ध्यान के ध्यानपना इष्ट है। अथवा क्योंकि द्रव्य पर्यायात्मक वस्तु में एकपना पाया जाता है इसलिए व्यंजन व एकीकरण हो जाने से एकार्थ चिन्ता निरोध भी घटित हो जाता है। द्रव्य से पर्याय, व्यंजन से व्यंजनान्तर और योग से योगान्तर इन प्रकारों को छोड़कर अन्यत्र चिन्ता वृत्ति में अनेकार्थता यह द्रव्य और पर्याय आदि में प्रवृत्ति नहीं है। उपयोग क्षयोपशम रूप है सो मन के द्वारा होय प्रवर्ते है सो मन का स्वभाव चंचल है। एक क्षेत्र में ठहरे नाहीं याही तैं इस पहिले ध्यान विषै, अर्थ व्यंजन, योग के विषय उपयोग की पलटनी बिना इच्छा होय है ।