भिक्षाचर्या
भिक्षा का काल और भूख का समय जानकर कुछ अवग्रह अर्थात् वृत्ति परिसंख्यान आदि नियम ग्रहण कर ग्राम या नगर में ईर्यासमिति से जाना भिक्षाचर्या है आहार स्वयं पकाना व दूसरे से पकवाना जो न तो करते हैं न कराते हैं वे मुनि एक भिक्षा मात्र से सन्तोष को प्राप्त होते हैं आगम में सब मूल व उत्तर गुणों के मध्य में भिक्षाचर्या ही प्रधान व्रत कहा है। मुनिराज आहार के लिए दाता की प्रशंसा नहीं करते और न कुछ मांगते है वे मौन व्रत सहित न ही कुछ कहते हुए भिक्षा के निमित्त विचरण करते हैं जिसमें कीचड़ नहीं है पानी फैला हुआ नहीं है और जो जल और वनस्पतिकाय जीवों से रहित हैं ऐसे मार्ग से मुनिराज भिक्षाचर्या के लिए जाते हैं एकान्तगृह, उद्यानगृह, कदलियों से बना हुआ घर, लतागृह, छोटे-छोटे वृक्षों से आच्छादित नाट्यशाला, गन्धर्वशाला इन स्थानों में भिक्षा चर्या के लिए प्रवेश निषिद्ध है। मुनि की भिक्षाचर्या पाँच प्रकार की बतायी गई है- उदराग्निशमन, अक्षमृक्षण, गोचरी, श्वभ्रभरण और भ्रमरी । घर में आने-जाने के मार्ग को छोड़कर गृहस्थों के प्रार्थना करने पर खड़े होना चाहिए। समान एवं छिद्ररहित ऐसी जमीन पर अपने दोनों पैरों के बीच चार अंगुल का अन्तर रखते हुऐ निश्चल खड़े रहना चाहिए और दीवार खम्बा आदि का आश्रय नहीं लेना चाहिए ।