भक्ति
भावों की निर्मलता से युक्त अनुराग का नाम भक्ति है अथवा अर्हन्त आदि के गुणों में प्रेम रखना भक्ति है वीतराग सम्यग्दृष्टियों के शुद्ध आत्मतत्व की भावनारूप भक्ति होती है तथा सराग सम्यग्दृष्टियों के पंचपरमेष्ठी की आराधना रूप सम्यक् भक्ति होती है। अर्हन्त, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन में भावों की विशुद्धि पूर्वक अनुराग रखना अरिहन्त भक्ति, आचार्य भक्ति, बहुश्रुत भक्ति और प्रवचन- भक्ति कहलाती है सिद्ध-भक्ति नन्दीश्वर भक्ति, नवधा आदि बहुत प्रकार की भक्तियों का उल्लेख मिलता है। मुनिराज का पड़गाहन करना उन्हें उच्च स्थान पर विराजमान करना उनके चरण धोना, पूजा करना, नमस्कार करना, अपने मन-वचन-काय की शुद्धि और आहार की शुद्धि बोलना इस प्रकार दान देने वाले के यह नौ प्रकार का पुण्य अथवा नवधा भक्ति कहलाती है। विद्यमान गुणों के अल्पज्ञता को उल्लंघन करके जो उनके बहुत्व ( बड़ा चढ़ा कर करना) की कथा की जाती है उसे लोक में स्तुति कहते हैं। तीर्थंकर के गुणों का कीर्तन करना चतुर्विंशति स्तवन है।