भंग
एक संख्या रूप प्रकृतियों में प्रकृतियों का बदलना सो भंग होता है। अंश, पर्याय, भाग, हार, विद्या, प्रकार, भेद, छेद और भंग ये एकार्थ वाचक हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शील, गुण, नय, वचन और द्रव्यार्थिक के भेद भंग कहलाते हैं। उनका जिसके द्वारा विधान किया जाता है वह भंगविधि अर्थात् श्रुतज्ञान है। अथवा भंग का अर्थ स्थिति और उत्पत्ति का अविनाभावी वस्तु विनाश है। जिसके द्वारा विहित अर्थात् निरूपित किया जाता है वह भंगविधि अर्थात् श्रुत है । जहाँ जुदे – जुदे भाव कहिये तहाँ प्रत्येक भंग जानने, (जैसे औदायिक भाव, उपशमभाव, क्षायिकभाव इत्यादि पृथक्-प्रथक)। जहाँ अन्य – अन्य भाव के संयोग रूप भंग होई तहाँ पर संयोग कहिये, (जैसे औदायिक, औपशमिक द्विसंयोगी या औदयिक क्षयोपशमिक पारिणा- मिक त्रिसंयोगी सन्निपातिकभाव)। जहाँ निजभाव के भेदनिका संग रूप ही भंग होई तहाँ स्वसंयोगी कहिये, (जैसे क्षायिकसम्यक्त्व क्षायिक चारित्रवाला द्विसंयोगी क्षायिक भाव)। एक जीव कै एकै काल जितने भाव पाइये तिनके समूह का नाम स्थान है, ताकि अपेक्षाकरि जे भंग करिये तिनको स्थान गत कहिये । एक जीव के एक काल जे भाव पाइये तिनकी एक जाति वा जुदे-जुदे का नाम पद कहिये, ताकि अपेक्षा जे भंग करिये तिनकौ पदगत कहिये । जहाँ एक जाति का ग्रहण कीजिये जैसे मिश्रभाव (क्षायोपशमिकभाव) विषै ज्ञान के चार भेद होते भी एक ज्ञान जाति का ग्रहण है। ऐसे जाति ग्रहण करि जे भंग करिये ते जातिपदगत भंग जानने । जे जुदे-जुदे सर्व भावनि (जैसे क्षायोपशमिक के ही ज्ञान दर्शनादि भिन्न-भिन्न भाव ) का ग्रहण करि भंग कीजिए ते सर्व पदगत भंग • जानने। जो भाव समूह एकै काल एक जीव के एक- एक ही सम्भवें चारों न सम्भवैं तिस भाव को पिंडपद कहिये । जो भाव एक जीव कै एक समूह काल विषै युगपत भी सम्भवै ऐसे भाव तिनिकौ प्रत्येक पद कहिये, (जैसे अज्ञान, दर्शन, लब्धि आदि क्षायोपशमिक भाव) ।