प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन
मिथ्यादृष्टि जीव को जो दर्शन मोहनीय आदि पाँच या सात प्रकृतियों के उपशम से प्राप्त होता है, वह प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन है। वह प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त करने वाला जीव पंचेन्द्रिय संज्ञी, मिथ्यादृष्टि, पर्याप्त और सर्वविशुद्ध होता है। सर्वविशुद्ध का अर्थ है कि प्रथम सम्यक्त्व को प्रारम्भ करने वाला जीव शुभ परिणाम के अभिमुख होता है तथा अन्तर्मुहूर्त में अनन्तगुणी वृद्धि के द्वारा वर्धमान विशुद्धि वाला होता है अथवा सर्वविशुद्ध का अर्थ है अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण व अनिवृत्तिकरण के भेद से तीन प्रकार की विशुद्धिओं से युक्त होना । नारकी, तिर्यंच, मनुष्य व देव से चारों ही गतिवाले मिथ्यादृष्टि जीव प्रथमोपशम सम्यकत्व को उत्पन्न करते हैं सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि अथवा वेदक सम्यग्दृष्टि जीव प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन को प्राप्त नहीं होता है उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाले वेदक सम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि उपशम सम्यकत्व को प्राप्त करने वाले होते हैं किन्तु उस सम्यकत्व का प्रथमोपशम सम्यकत्व नाम नहीं है क्योंकि उस उपशम श्रेणी वालों की उपशम सम्यकत्व की उत्पत्ति सम्यक्त्व से होती है इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला जीव मिथ्यादृष्टि ही होना चाहिये । वह सादि और अनादि दोनों प्रकार का हो सकता है। सादिमिथ्यादृष्टि जीव की सात प्रकृतियों सम्यकत्व, सम्यग्मिथ्यात्व, व मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधी सम्बन्धी चार के उपशम से और अनादि मिथ्यादृष्टि के पाँच प्रकृतियों के उपशम से प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। (दर्शनमोह सामान्य एक एवं चार अनन्त सम्बन्धी ) ।