प्रतिभा
उत्तर की समीचीन प्रतिपत्ति हो जाना प्रतिभा है। किन्हीं लोगों उसको न्यारा प्रमाण माना है किन्तु हम जैनों के न्यारे प्रमाण स्वरूप नहीं है क्योंकि वाचक शब्दों की योजना का सद्भाव है किन्तु अत्यन्त अभ्यास हो जाने से झटिति, कूट, वृक्ष, जल आदि में उस प्रतिभा के अनुसार प्रवृत्ति हो जाती है, जो यह अनभ्यासी पुरुष की प्रतिभा है। वह तो श्रुत नहीं है क्योंकि पहले कहे देख लिए गये और अब उत्तर काल में देखे जा रहे कूट, वृक्ष आदि के एक पल में झट सादृश प्रत्यभिज्ञा उपज जाती है । अतः वह मतिज्ञान ही है।