प्रतिक्रमण
‘मेरा दोष मिथ्या हो गुरू से ऐसा निवेदन करके अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना प्रतिक्रमण है अथवा प्रमादवश किए गए दोषों का जिसके द्वारा निराकरण किया जाता है उसको प्रतिक्रमण कहते हैं अथवा जब मुनि को चारित्र पालन करते समय दोष लगते हैं तब पूर्वकृत अनेक प्रकार का जो शुभ-अशुभ कर्म हैं उससे जो आत्मा अपने को दूर रखता है, वह आत्मा प्रतिक्रमण है। ‘मैने यह अयोग्य किया ऐसे आत्मा में उत्पन्न हुऐ परिणाम को प्रतिक्रमण कहते हैं। दैवसिक, रात्रिक, ऐर्यापथिक, पाक्षिक, चतुर्मासिक, सांवत्सारिक और उत्तमार्थ ऐसे प्रतिक्रमण के सात भेद हैं- दिवस सम्बन्धी दोषों के निराकरण के लिए दैवसिक, रात्रि कालीन दोषों के निराकरण के लिए रात्रिक, गमन सम्बन्धी दोषों के निराकरण के लिए ईर्यापथिक, एक पक्ष भर में हुए दोषों के निराकरण के लिए पाक्षिक, चार माह में लगे हुए दोषों के निराकरण के किए चातुर्मासिक, वर्षपर्यन्त में हुए दोषों के निराकरण के लिए सांवत्सरिक एवं जीवन के अंत में जीवनपर्यन्त चारों प्रकार के आहार का जो त्याग किया था उसके दोषों की शुद्धि के लिए उत्तमार्थ प्रतिक्रमण किया जाता है। सर्वातिचार प्रतिक्रमण, त्रिविध प्रतिक्रमण और उत्तमार्थ प्रतिक्रमण ऐसे प्रतिक्रमण के तीन भेद भी किए गये हैं- दीक्षा ग्रहण से लेकर सब तत्पश्चरण के काल तक जो दोष लगे हों उनकी शुद्धि करना सर्वातिचार प्रतिक्रमण है जल के बिना तीन प्रकार का आहार का त्याग करने में जो अतिचार लगे थे उनका शोधन करना त्रिविध प्रतिक्रमण है तथा जिसमें जीवनपर्यन्त जल पीने का त्याग किया था, उसके दोषों की शुद्धि करना उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है।
प्रतिक्रमण
यह दो प्रकार का है- ज्ञानीजनों के आश्रित और अज्ञानीजनों के आश्रित । अज्ञानी जनों के आश्रित जो प्रतिक्रमण है वह विषय – कषाय की परिणति रूप है अर्थात् हेय-उपादेय के विवेक से रहित सर्वथा अत्याग रूप निरर्गल प्रवृत्ति है। ज्ञानी जनों के आश्रित जो प्रतिक्रमण है वह शुद्धात्म के सम्यक् – श्रद्धान, ज्ञान व आचरण लक्षण वाले अभेद रत्नत्रय या त्रिगुप्ति रूप यह प्रतिक्रमण के उपरान्त प्राप्त हुई आत्मस्थ अवस्था है।