प्रकृति बंध
प्रकृति का अर्थ स्वभाव है जिस प्रकार नीम की प्रकृति कडुवापन और गुड़ की प्रकृति मीठापन है उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म की प्रकृति पदार्थ का ज्ञान न होने देना है अथवा जो कर्म स्कन्ध वर्तमान काल में फल देता है और जो भविष्य काल में फल देगा इन दोनों के ही कर्म स्कन्धों की प्रकृति संज्ञा है प्रकृतिशील और स्वभाव ये सब एकार्थवाची शब्द हैं। ज्ञानावरण आदि अष्टविध कर्मों के उस कर्म के योग्य जो पुद्गल द्रव्य का स्वभाव है वह प्रकृति बन्ध है। प्रकृति बंध दो प्रकार का है मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृति । ज्ञानावरणयीय दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, और अन्तराय ये आठ मूल कर्म प्रकृतियाँ हैं, इन आठ मूल प्रकृतियों के क्रम से पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, तेरानवें, दो और पाँच भेद हैं। इस प्रकार एक सौ अड़तालीस उत्तर प्रकृतियाँ हैं। उत्तरोत्तर भेदों की अपेक्षा से असंख्यात लोकप्रमाण कर्म प्रकृतियाँ हैं। जिस प्रकार भोजन का अनेक विकार में समर्थ, वात, पित्त कफ, खल, रस आदि रूप से परिणमन हो जाता है उसी प्रकार बिना किसी प्रयोग के कर्म भी आवरण, अनुभव, मोह उत्पादन, भव – धारण, अनेक जाति वाले नाम गोत्र अन्तराय आदि शक्तियों से युक्त होकर आत्मा से बंध को प्राप्त हो जाते हैं। कर्म प्रकृतियाँ सादि, अनादि, सान्तर, निरन्तर उभय ध्रुव, अध्रुव रूप से बंध को प्राप्त होती है। विवक्षित कर्म प्रकृति के बन्ध विच्छेद हो जाने पर पुनः जो उसका बंध होता है, उसे सादि बंध कहते हैं जीव और कर्म के अनादि कालीन बंध को अनादिबंध कहते हैं जो बन्ध निरन्तर होता रहता है, उसे ध्रुव बंध कहते हैं और जो बंध अन्तर सहित होता है, उसे अध्रुव बंध कहते हैं। जिस कर्म प्रकृति का प्रत्यय नियम से सादि एवं अध्रुव तथा अर्न्तमुहूर्त आदि काल तक अवस्थित रहने वाला है निश्चय बंधी प्रकृति है जिस प्रकृति का काल क्षय से बन्धत्युच्छेद संभव हो वह जानकर ही होता है। तीर्थंकर, आहारक द्विक चारों आयु और ध्रुव बन्धी सैतालीस प्रकृतियाँ इन सब चौवन प्रकृतियों का निरन्तर बंध होता है अन्तिम पाँच संस्थान, अन्तिम पाँच संहनन, साता वेदनीय उद्योत एकेन्द्रिय जाति, तीन विकलेन्द्रिय जातियाँ, स्थावर, नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, अरति, शोक, अयशः कीर्ति, दुर्भग, दुःस्वर, अशुभ, सूक्ष्म, साधारण अपर्याप्त नरकाद्विक, अनादेय, असातावेदनीय, अस्थिर और अप्रशस्त विहायोगति इन चौंतीस प्रकृतियों का नियम से सान्तरबन्ध होता है। शेष बची बत्तीस प्रकृतियों का बन्ध सान्तर निरन्तर रूप होता है। वह इस प्रकार से हैसातावेदनीय, पुरुष वेद, हास्य, रति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक शरीरांगोपांग वैक्रियिक शरीर, वज्रवृषभनाराच शरीर संहनन, तिर्यग्गति प्रायोग्य, मनुष्यगति प्रायोग्य, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, परधान, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, उच्चचगोत्र, उच्च गति ये सांतरनिरन्तर रूप से बंधती है । भेद विवक्षा से मिश्र और सम्यकत्व प्रकृति के बिना 146 प्रकृतियाँ बन्ध योग्य हैं तथा अभेद विवक्षा में 120 प्रकृतियाँ बन्ध योग्य हैं क्योंकि चार वर्ण, चार रस, एक गन्ध, सात स्पर्श सम्यग्मिथ्यात्व सम्यकत्व प्रकृति, पाँच बन्धन, पाँच संघात ये अठ्ठाइस प्रकृतियाँ बंध के अयोग्य होती है।