पृथकत्व वितर्क वीचार
द्रव्य गुण और पर्याय के मिलने को पृथकत्व कहते हैं । निजशुद्धात्मा के अनुभव रूप भावश्रुत को और निजशुद्धात्मा को कहने वाले अन्तर्जल्प रूप वचन को वितर्क कहते हैं इच्छा के बिना ही एक अर्थ से दूसरे अर्थ में एक वचन से दूसरे वचन में मन वचन व काय इन तीनों योगों में से किसी एक योग से दूसरे योग में जो परिणमन है उसको वीचार कहते हैं इसका अर्थ यह है कि यद्यपि ध्यान करने वाले महामुनि निजशुद्धात्म संवेदन को छोड़कर बाह्य पदार्थों की चिन्ता नहीं करते तथापि जितने अंशो से स्वरूप में स्थिरता नहीं है उतने अंशो से इच्छा के बिना भी विकल्प उत्पन्न होते हैं इस कारण इस ध्यान को पृथकत्व वितर्क वीचार कहते हैं वह प्रथम शुक्ल ध्यान उपशम श्रेणी की अपेक्षा अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसाम्पराय उपशमक व उपशान्त कषाय इन चार गुणस्थानों में होता है क्षपक श्रेणी की विवक्षा में अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण या सूक्ष्म साम्पराय क्षपक इन तीन गुणस्थानों में होता है ऐसा एक आचार्य का मत है पहले शुक्ल ध्यान का स्वामी उपशम कषाय वाला मुनि है, ऐसा दूसरे आचार्य का मत है चौदह दस नौ पूर्व का धारी प्रशस्त तीन संहनन वाला कषाय कलंक से रहित हुआ और तीनों योगों में से किसी एक में स्थित ऐसा उपशांत कषाय गुणस्थान वाला ही प्रथम शुक्ल ध्यान का स्वामी है लेकिन क्षीण कषाय गुण स्थान के काल में सर्वत्र द्वितीय शुक्ल ध्यान ही होता है ऐसा कोई नियम नहीं है अर्थात् वहाँ प्रथम शुक्ल ध्यान भी होता है ऐसा अन्य आचार्य का मत है। इस ध्यान के फलस्वरूप संवर निर्जरा और अमर सुख की प्राप्ति होती है इससे साक्षात् मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती है, ऐसा एक आचार्य का कहना है इस ध्यान के अचिन्त्य प्रभाव से जिसका चित्त शान्त हो गया है ऐसा ध्यानी मुनि क्षणभर में मोहनीय कर्म का समूल नाश करता है अथवा उसका उपशम करता है, ऐसा दूसरे आचार्य कहना है यह ध्यान स्वर्ग व मोक्ष के सुख को देने का वाला है, ऐसा अन्य आचार्य का कहना है ।