पूजा
पंच परमेष्ठी के चरणों में दीप, धूप, पुष्प, भी मधुर दिव्य नैवेध से, सुगन्धित धूप से, प्रदीप्त किरणों से युक्त रत्नमय दीपों से ओर पके हुए केला, अनार, दाख आदि फलों से पूजा करते हैं इस प्रकार सचित्त और अचित्त दोनों प्रकार की अष्ट द्रव्य फल आदि के द्वारा अपनी भक्ति प्रकाशित करना पूजा या अर्चना कहलाती है नाम, स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा छह प्रकार से पूजा की जाती है, अर्हन्त आदि का नाम उच्चारण करके जो पुष्प क्षेपण किए जाते हैं, वह नाम पूजा है। वीतराग मुद्रा प्रतिमा में अरहन्त आदि के गुणों की स्थापना करके पूजा करना स्थापना पूजा है। अर्हन्त आदि के सम्मुख गंध, पुष्प, धूप, अक्षत आदि समप्रित करना द्रव्य पूजा है। तीन प्रदक्षिणा देना नमस्कार करना आदि शरीर की क्रियाएँ करना और वचनों से अर्हन्त आदि के गुणों का स्तवन करना यह भी द्रव्य पूजा है। तीर्थंकर की जन्मभूमि दीक्षा भूमि, कैवल्य प्राप्ति स्थान, तीर्थचिन्ह स्थान और निर्वाण भूमियों में पूजा करना क्षेत्र पूजा है। तीर्थंकरों के पंचकल्याणक की तिथियों के दिन भगवान का अभिषेक पूजन करना तथा नंदीश्वर पर्व के आठ दिनों में और अन्य सर्व पर्वों के दिनों में जिन पूजा करना काल पूजा कहलाती है। अर्हन्त आदि के गुणों का चिन्तवन करना भावपूजा है। अर्हन्त आदि की पूजा सम्यग्दर्शन की विशुद्धि को बढ़ाने वाली है तथा कर्मों की निर्जरा और परम्परा से निर्वाण का कारण है। इन्द्रगण कुंकुम, कर्पूर, चन्दन कालागुरू और अन्य सुगंधित द्रव्यों से प्रतिमाओं का विलेपन करते हैं वे सेवंती, चम्पकमाला, पुनांग और नाग आदि सुगंधित पुष्प मालाओं से प्रतिमाओं की पूजा करते हैं। दाख, अनार, केला, नारंगी तथा अन्य भी पके हुए फलों से पूजा करते हैं। राजा भरत ने पके हुए मनोहर आम, जामुन, केला, अनार, सुपारियों के सुन्दर गुच्छे और नारियल से भगवान के चरणों की पूजा की। देवगण भारी कलश दप्रण तीन छत्र आदि चमर आदि द्रव्यों से स्फुटिक मणिमय दण्ड के समान उत्तम जल धाराओं से सुगंधित मलय चन्दन आदि मोतियों के पुंज रूप शालिधान्य के अखंड तन्दुलों से जिनका रंग और गंध फैल रही है ऐसी सैकडों मालाओं से, अमृत से पूजा की जाती है। व्यवहार में पूजन के पाँच अंग देखे जाते हैं- आह्वानन स्थापना, सन्निधिकरण, पूजन और विसर्जन (समापन ) । सदार्चन (नित्यमह ) चतुर्भुज (सर्वतोभद्र) कल्प्रदुम तथा अष्टाह्निक ऐसे चार प्रकार पूजा होती है। जो जीव भक्ति भाव से जिनेन्द्र भगवान का न दर्शन करते हैं न पूजन करते हैं और न ही स्तुति करते हैं उनका जीवन निष्फल है। श्रावक को प्रातःकाल भक्तिपूर्वक अर्हन्त आदि का दर्शन वंदन करके धर्म श्रवण करना चाहिए तत्पश्चात् अन्य कार्यों को करना चाहिए ।