द्वैताद्वैतवाद
निश्चय से द्वैत ही संसार व अद्वैत ही मोक्ष है। यह दोनों के विषय में संक्षेप से कथन है। जो चरम सीमा को प्राप्त है जो भव्य जीव धीरे-धीरे इस प्रथम (द्वैत) पद से निकलकर दूसरे अद्वैत पद का आश्रय करता है वह यद्यपि निश्चयतः वाच्यवाचक भाव का अभाव हो जाने के कारण संज्ञा नाम से रहित हो जाता है फिर भी व्यवहार से वह ब्रह्मादि ( पर ब्रह्म परमात्मा आदि ) नाम को प्राप्त करता है। भट्ट भास्कर ने ब्रह्म में लय हो जाते हैं ब्रह्म जगत में कार्य कारण सम्बन्ध है व दोनों ही सत्य है निर्यापकाचार्य विद्या का अधिकार नहीं है पापियों को चन्द्रगति नहीं मिलती। दक्षिणायण में मरने पर विद्वानों को ब्रह्म प्राप्ति होती है, हिमालय में जाने वालों को दुःख अनुभव नहीं होता। विष्णु के भक्त हैं, राधा-कृष्ण को प्रधान मानते है।