दैव
योग्यता या पूर्वकर्म दैव कहलाता है अथवा प्राणी ने पूर्व भव में जिस पाप या पुण्य कर्म का संचय किया है वह दैव कहा जाता है विधि, स्रष्टा, विधाता, दैव, पुराकृत कर्म और ईश्वर ये सब कर्म के ही पर्यायवाची नाम हैं इनके सिवाय और कोई लोक को बनाने वाला ईश्वर नहीं है। दैव से ही सर्व प्रयोजनों की सिद्धि होती है। वह दैव अर्थात् पाप कर्म रूप व्यापार भी पूर्व के दैव से होता है ऐसा मानने से मोक्ष का व पुरुषार्थ का अभाव ठहरता है अतः ऐसा एकान्त दैववाद मिथ्या है। केवल दैव से ही यदि कार्यसिद्धि मानते हैं तो पुरुषार्थ करना व्यर्थ हो जाता है। केवल पुरुषार्थ से ही यदि कार्यसिद्धि मानी जाए तो पुरुषार्थ तो सभी करते हैं फिर सबको समान फल की प्राप्ति होती नहीं क्यों देखी जाती है इसलिए अनेकान्त पक्ष को स्वीकार करके दोनों से ही कथंचित् कार्यसिद्धि मानना योग्य है क्योंकि कार्यकारण दो प्रकार से देखे जाते हैं। अबुद्धिपूर्वक स्वयं हो जाने वाले या मिल जाने वाले बुद्धिपूर्वक किए जाने वाले या मिलाए जाने वाले । वहाँ अबुद्धिपूर्वक होने वाले व मिलने वाले कार्य व कारण तो अपने दैव से ही होते हैं और बुद्धिपूर्वक किए जाने वाले व मिलाए जाने वाले इष्ट अनिष्ट कार्य व कारण अपने पुरुषार्थ से होते हैं अर्थात् अबुद्धिपूर्वक होने वाले कार्यकारणों में दैव प्रधान है तथा बुद्धिपूर्वक वालों में पुरुषार्थ प्रधान है। (आप्त मीमांसा)।