तत्त्व
जिस वस्तु का जो भाव है वही तत्त्व है जैसे आत्मतत्त्व अर्थात् आत्मा का स्वरूप आशय यह है कि जो पदार्थ जिस रूप में अवस्थित है उसका उस रूप होना यही ‘तत्त्व’ शब्द का अर्थ है जीव, अजीव, आस्रव बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष – ये सात तत्त्व है । सब फल जीव को मिलता है अतः प्रारम्भ में जीव तत्त्व का ग्रहण किया है अजीव तत्त्व जीव का उपकारी है अतः दिखलाने के लिए जीव तत्त्व के बाद अजीव तत्त्व का कथन किया है। आस्रव तत्त्व जीव व अजीव दोनों को विषम करता है अतः इन दोनों के बाद आस्रव तत्त्व का ग्रहण किया है । बन्ध सदा आस्रवपूर्वक होता है इसलिए आस्रव के बाद बन्ध तत्त्व का कथन किया है। संवृत जीव के बन्ध नहीं होता अतः संवर तत्त्व बंध से विपरीत है इस बात का ज्ञान कराने के लिए बन्ध के बाद संवर तत्त्व का कथन किया है संवर के होने पर निर्जरा होती है इसलिए संवर के पास निर्जरा तत्त्व को रखा है मोक्ष अन्त में होता है अतः उसका अन्त में कथन किया है मोक्ष, संसारपूर्वक होता है यदि संसार के प्रधान कारण आस्रव और बंध हैं तथा मोक्ष के प्रधान कारण संवर और निर्जरा है अतः प्रधान हेतु, हेतुवाले और उनके फल को दिखलाने के लिए अलग-अलग सात तत्त्वों का उपदेश किया है अथवा अविनाशी अनन्त-सुख उपादेय तत्त्व है उस अनन्त सुख का कारण मोक्ष है मोक्ष के कारण संवर और निर्जरा है उन संवर और निर्जरा का कारण विशुद्ध निश्चय रत्नत्रय स्वरूप आत्मा है यह उपादेय तत्त्व है। इसी प्रकार आकुलता को उत्पन्न करने वाला नरकगति आदि का दुख तथा इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ सुख हेय यानी त्याज्य है उसका कारण संसार है और संसार के कारणभूत आस्रवबंध ये दो तत्त्व हैं। आस्रव व बंध का कारण मिथ्यादर्शन, ज्ञान व चारित्र है इसलिए ये हेय है। इस प्रकार हेय और उपादेय का निरूपण करने पर सात तत्त्व स्वयं सिद्ध हो जाते हैं।