जैनदर्शन
जिसके द्वारा जीवन का और जीवन के विकास का ज्ञान प्राप्त किया जाए उसे दर्शन कहते हैं। जिनेन्द्र भगवान के द्वारा प्रतिपादित दर्शन ही जैनदर्शन है। जैनदर्शन आत्मा, परमात्मा और पुनर्जन्म में विश्वास करता है। जैनदर्शन के अनुसार जीव की परम विशुद्ध अर्हन्त व सिद्ध अवस्था ही परमात्मा या ईश्वर है इनसे अतिरिक्त अन्य कोई जगत्-व्यापी एक ईश्वर नहीं है प्रत्येक आत्मा कर्मों का समूल क्षय (नाश) करके परमात्मा बन सकता है। जीव, अजीव, आस्रव बंध संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्व हैं चैतन्य लक्षण वाला जीव है जो शुभ–अशुभ कर्मों का कर्ता व उनके फल का भोक्ता है इसके विपरीत जड़ पदार्थ अजीव हैं, वह भी पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल के भेद से पाँच प्रकार का है। पुद्गल से जीव के शरीर और कर्मों का निर्माण होता है। सत्कर्मों को पुण्य और असत् कर्मों को पाप कहते हैं । पुण्य और पाप रूप कर्मों का आस्रव (आगमन) जीव के निरन्तर होता रहता है। मिथ्यात्व और रागद्वेष के द्वारा जीव निरन्तर कर्म और शरीर के साथ बंधन को प्राप्त होकर संसार में भ्रमण करता है। आत्मतत्त्व का यथार्थ ज्ञान करके मन-वचन-काय की प्रवृति का निरोध करना संवर है। उस संवरपूर्वक मन को आत्म-स्वरूप में एकाग्र करना गुप्ति, ध्यान या समाधि कहलाती है तथा इच्छाओं को जीतना, परीषह सहन करना आदि तप है। उससे पूर्वसंचित संस्कार व कर्मों का धीरे-धीरे नाश होता है यही निर्जरा है और प्रतिक्षण तप के द्वारा होने वाली अनंतगुणी निर्जरा से अल्पकाल में ही समस्त कर्म नष्ट हो जाने से जीव को मोक्ष प्राप्त हो जाता है फिर वह संसार में कभी भी नहीं आता। यह सिद्ध अवस्था है। तत्त्वों के श्रद्धान व ज्ञान रूप सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान सहित चारण किया गया चारित्र व तप उस मोक्ष की प्राप्ति का उपाय है ।।