चैत्य
: 1. चैत्य का अर्थ प्रतिमा है प्रतिमा, प्रतियातना, प्रतिबिंब और प्रतिकृति ये सब एकार्थवाची शब्द हैं इस लोक में स्थित होने के कारण केवल ज्ञान होने के उपरान्त जिनेन्द्र भगवान का शरीर सहित प्रतिबिंब स्थावर प्रतिमा कहलाती है और मोक्षगमन काल में एक समय के लिए वही जंगम जिन प्रतिमा कहलाती है। व्यवहार में चन्दन, सुवर्ण, महामणि, स्फटिक आदि से निर्मित प्रतिमा स्थायी प्रतिमा कहलाती हैं, उसे समवशरण मण्डित अर्हन्त भगवान व जंगम प्रतिमा है दर्शनज्ञान शुद्ध है आचरण जिनका सेवीकरण निर्ग्रन्थ साधु की देह को भी जिनमार्ग से जंगम प्रतिमा कहा गया है । चैत्य शब्द के द्वारा प्रमुख रूप से अर्हन्त और सिद्धों की प्रतिमाओं को ग्रहण किया जाता है वैसे पाँचों परमेष्ठियों की प्रतिमाओं का उल्लेख मिलता है आठ प्रातिहार्य से युक्त तथा सम्पूर्ण शुभ अवयवों वाली, वीतराग भाव से परिपूर्ण अर्हन्त प्रतिमा होती है प्रातिहार्यों से रहित सिद्धों की शुभ प्रतिमा होती है। आचार्य, उपाध्याय और साधुओं की प्रतिमा भी आगम के अनुसार बनायी जाती है अर्थात् वरदहस्त सहित आचार्य की, शास्त्र सहित उपाध्याय की तथा केवल पिच्छी कमण्डल सहित साधु की प्रतिमा ही है शेष कोई भेद नहीं है। (पाण्डुक वन में स्थित ) जिन प्रतिमाएँ इन्द्रनीलमणि व मरतक मणिमय, कुन्तल तथा भृकुटियों के अग्रभाग से शोभा प्रदान करने वाली स्फटिक व इन्द्रनीलमणि से निर्मित धवल व कृष्ण नेत्र युगल से सहित, बज्रमय दन्तपंक्ति की प्रभा से युक्त, पल्लव के समान अधरोष्ठ से सुशोभित, हीरे से निर्मित उत्तम नखों से विभूषित कनक के समान लाल हाथ पैरों से विशिष्ट, एक हजार आठ व्यंजन समूहों से सहित और बत्तीस शुभलक्षणों से युक्त है सुमेरूपर्वत के भद्रशाल वन में स्थित चार चैत्यालयों में भी ऐसी ही जिन प्रतिमाओं का वर्णन मिलता है उन (भवनवासी देवों के) भवनों में सिंहासनादि से सहित, हाथ में चमर लिए नागयक्षदेव से युक्त और नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित जिन प्रतिमाएँ विराजमान हैं घंटा आदि सब उपकरण दिव्य मंगल द्रव्य अलग- अलग जिन प्रतिमाओं के पास में सुशोभित होते हैं। भृंगार, कलश, दप्रण चंवर, ध्वजा, बीजना छत्र और सुप्रतिष्ठ ये आठ मंगल द्रव्य हैं इनमें से प्रत्येक वहाँ 108 होते हैं। 2. बंध, मोक्ष, दुख व सुख को भोगने वाला आत्मा ही चैत्य है अथवा रत्नत्रय से युक्त वीतराग निर्ग्रन्थ साधु की देह को जिनमार्ग में चैत्य या प्रतिमा कहा है।