चरम
चरम शब्द का अर्थ अंतिम है। उत्तम शब्द का अर्थ उत्कृष्ट है। जिनका शरीर चरम और उत्तम है वे चरमोत्तम देह वाले कहे जाते हैं। जिनका संसार निकट है अर्थात् उसी भव से मोक्ष को उत्पन्न होने वाले जीव चरमोत्तम देह वाले कहे जाते हैं। तीनों गति के जीव मनुष्य भव पाकर ही मुक्त होते हैं, उन भवों से नहीं। इसलिए मनुष्य भव के द्विचरमपना है। चरम शब्द अन्त्यवाची है, इसलिए एक ही भव चरम हो सकता है, दो नहीं । इसलिए द्विचरम कहना युक्त नहीं है ? उत्तर- नहीं, क्योंकि उपचार से द्विचरमत्व कहा गया है। चरम के पास में अव्यवहित पूर्व का मनुष्य भव भी उपचार के चरम कहा जा सकता है। प्रश्न – विजयादिकों में द्विचरमत्व कहने में आर्ष विरोध आता है क्योंकि उसे त्रिचरमत्व प्राप्त हैं ? उत्तर सर्वार्थसिद्धि से च्युत होने वाले मनुष्य पर्याय में आते हैं और उसी पर्याय से मोक्ष लाभ करते हैं। विजयादिक देव, लौकांतिक देवों की तरह करते हैं। विजयादिक देव लौकांतिक की तरह एक भविक नहीं है, किन्तु द्विभविक है। इसके बीच में यदि कल्पान्तर में उत्पन्न हुआ तो उसकी विवक्षा नहीं। चरम शरीरी की उत्पत्ति चौथे काल में ही होती है। जम्बूस्वामी चौथे काल में उत्पन्न होकर पंचमकाल में मुक्त हुए।