गार्हपत्य
अग्निकुमार देवों के इन्द्र के मुकुट से प्राप्त हुई तीन प्रकार की अग्नि प्राप्त करनी चाहिए। ये तीनों अग्नियाँ तीर्थंकर, गणधर, सामान्य केवली के अन्तिम अर्थात् निर्वाणोत्सव में पूजा का अंग होकर अत्यन्त पवित्रता प्राप्त होयी जानी जाती है। आह्वनीय और दक्षिणाग्नि नाम से प्रसिद्ध है इन तीनों गार्हपत्य महाअग्नियों को तीन कुण्डों में स्थापित करे। इन तीनों अग्नियों में मंत्रों के द्वारा पूजा करने वाला पुरुष द्विजोत्तम कहलाता है और जिसके इस प्रकार की पूजा नित्य होती रहती है, वह आहूताग्नि व अग्निहोत्री कहलाती है। नित्य पूजा करते समय तीनों अग्नियों का विनियोग नैवेद्य पकाने में, धूप खेने में और दीपक जलाने में होता है अर्थात् गार्हपत्य अग्नि से नैवेद्य पकाया जाता है, आह्वानीय अग्नि में धूप खेई जाती है और दक्षिणाग्नि में दीप जलाया जाता है। घर में बड़े प्रयत्न से इन तीनों अग्नियों की रक्षा करनी चाहिए और जिनका कोई संस्कार नहीं हुआ है ऐसे लोगों को कभी नहीं देना चाहिए । अग्नि में स्वयं पवित्रता नहीं है, न ही वह देवता रूप है किन्तु अरहन्त देव की दिव्य मूर्ति की पूजा के संबंध से वह अग्नि पवित्र हो जाती है। इसलिए द्विजोत्तम लोग इसे पूजा का अंग मानकर इसकी पूजा करते हैं। अतः निर्वाण क्षेत्र की पूजा के समान अग्नि की पूजा करने में कोई दोष नहीं है। ब्राह्मणों को व्यवहारनय की अपेक्षा ही अग्नि की पूज्यता इष्ट है इसलिए जैन ब्राह्मणों को भी आज यह व्यवहारनय उपयोग में लाना चाहिए ।