गति
एक देश से दूसरे देश को प्राप्त करने का जो साधन है उसे गति कहते हैं अथवा बाह्य और आभ्यन्तर निमित्त के वश से उत्पन्न होने वाला काय का परिस्पन्दन गति कहलाता है। क्रिया, प्रयोग आदि के भेद से गति दस प्रकार की है- वाण, चक्र आदि की प्रयोग गति है, एरण्ड बीज आदि की बन्धाभाव गति है । मृदंग, शंखादि के शब्द जो दूर तक जाते हैं वह पुद्गलों की छिन्न गति है। गेंद आदि की अभिघात गति है। नौका आदि की अवगाहन गति है पत्थर आदि की नीचे की ओर जाने वाली गुरुत्वगति है। तुंबड़ी, रूई आदि की ऊपर जाने वाली लघुत्वगति है। सुरा, सिरका आदि की संचारगति है। मेघ, रथ, मूसल आदि की क्रमशः वायु, हाथी और हाथ के संयोग से होने वाली संयोग गति है वायु, अग्नि, परमाणु, मुक्त जीव और ज्योतिर्देव आदि की स्वभाव गति है। स्वभाव होने से मुक्त जीव उर्ध्वगमन करता है। जीवों में जो विकृत गति पायी जाती है वह या तो प्रयोग से है या फिर कर्मों के प्रतिघात से है कर्म से बद्ध जीव की गति छह दिशाओं में होती है। पत्थर, वायु और अग्नि शिखा स्वभाव से ही नीचे, तिरछे और ऊपर को जाते हैं। परमाणु की जो लोकान्त तक गति होती है, वह नियम से अनुश्रेणी ही होती है।