गणधर
जैनेश्वरी दीक्षा लेकर एवं भगवान की दिव्य ध्वनि को धारण करने में समर्थ हैं और लोक-कल्याण के लिए वाणी का सार द्वादशांग के रूप में जगत को प्रदान करते हैं, ऐसे महामुनीश्वर ‘गणधर’ कहलाते हैं। प्राप्त ऋद्धियों के बल से गणधर आहार, निहार, निद्रा, आलस्य आदि से सदाकाल मुक्त रहते हैं अतः चौबीस घंटे निरंतर भगवान की वाणी हृदयंगम करने में संलग्न रहते हैं। गणधर को ग्रन्थकर्ता कहा गया है वे सब भाषाओं में कुशल होते हैं वे समवसरण में स्थित सभी जीवों को उनकी अपनी-अपनी भाषा में धर्म का मर्म समझाने वाले होते हैं। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव भगवान के चौरासी गणधर थे और अंतिम चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी के ग्यारह गणधर थे। दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ से लेकर तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के क्रमशः नब्बे, एक सौ पाँच, एक सौ तीन, एक सौ सोलह, एक सौ ग्यारह, पंचानवे, तेरान्नवे, अठासी, सत्तासी, सतत्तर, छयासठ, पचपन, पचास, तेतालीस, छत्तीस, पैंतीस, तीस अट्ठाइस, अठारह, सत्तरह, ग्यारह और दस गणधर हुए। सभी गणधर उसी भव से मोक्ष जाते हैं।