क्षेत्र
वर्तमान काल विषयक निवास को क्षेत्र नियम से आकाश है और आकाश से विपरीत नो क्षेत्र है। क्षि: धातु का अर्थ ‘निवास करना है। इसलिए क्षेत्र शब्द का यह अर्थ है कि जिसमें पुद्गलादि द्रव्य निवास करते हैं, उसे क्षेत्र अर्थात् आकाश कहते हैं । वर्तमान क्षेत्र का प्ररूपण करने वाली क्षेत्र प्ररूपणा है। अपनी अपनी संख्या से गुणित अवगाहना क्षेत्र रूप क्षेत्र को क्षेत्रानुगम कहते हैं। (जीव के स्वरूप को क्षेत्र कहते हैं), यह उसे जानता है इसलिए क्षेत्र भी कहलाता है। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा क्षेत्र एक प्रकार का है अथवा प्रयोजन के आश्रय से (पर्यायर्थिक नय से) क्षेत्र दो प्रकार का है। लोकाकाश व अलोकाकाश अथवा देश के भेद से क्षेत्र तीन प्रकार का है। मन्दराचल (सुमेरू पर्वत) की चूलिका से ऊपर का क्षेत्र उर्ध्वलोक है, मन्दराचल के मूल से नीचे का क्षेत्र अधोलोक है, मन्दराचल से परिच्छिन्न अर्थात् तत्प्रमाण मध्यलोक है। स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद के भेद से सब जीवों की अवस्था तीन प्रकार की है उनमें से स्वस्थान दो प्रकार का है। स्वस्थान और स्वस्थान विहारवत, वैक्रियक समुद्घात, मरणान्तिक समुद्घात, तेजस शरीर समुद्घात, आहारक शरीर समुद्घात और केवली समुद्घात । उत्पन्न होने के ग्राम में, नगर में अथवा अरण्य में सोना, बैठना, चलना आदि व्यापार से युक्त होकर रहने का नाम स्वस्थान – स्वस्थान अवस्थान है। उत्पन्न होने के ग्राम, नगर अथवा अरण्यादि को छोड़कर अन्यत्र गमन, निषोदन और परिभ्रमण आदि व्यापार से युक्त होकर रहने का नाम विहारवत स्वस्थान है। उपपाद ( अवस्थान क्षेत्र) एक प्रकार का है और वह उत्पन्न होने ( जन्मने) के पहले समय में ही होता है। इसमें जीव के समस्त प्रदेशों का संकोच हो जाता है। प्रदेश यह तो सामान्य क्षेत्र कहलाता है। तथा यह वस्तु का प्रदेशरूप अंशमयी अर्थात् अमुक द्रव्य इतने प्रदेशवाला है इत्यादि विशेष क्षेत्र कहलाता है। लोक शिखर का कोण भाग निष्कुट क्षेत्र कहलाता है। मिथ्यादृष्टि जीवराशि के शेष तीन विशेषण अर्थात् आहारक समुद्घात, तैजस समुद्घात और केवली समुद्घात संभव नहीं है क्योंकि इनके कारणभूत संयमादि गुणों का मिथ्यादृष्टि के अभाव है। स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना समुद्घात, सासादन सम्यग्दृष्टि सम्यक्मिथ्यादृष्टि, वेदना समुद्घात, कषाय – समुद्घात और वैक्रियक समुद्घात रूप से परिणत हुए सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यक्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि जीव कितने क्षेत्र में होते हैं। लोक के असंख्यात भाग प्रमाण क्षेत्र में अर्थात् सासादन गुणस्थान में यह पाँच होने सम्भव है। मरणान्तिक समुद्घात और उपपाद सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टियों का इसी प्रकार कथन करना चाहिए। अर्थात् इस गुणस्थान में दो पद भी सम्भव हैं । त्रस जीवों से विरहित (मानुषोत्तर व स्वयंप्रभ पर्वतों के मध्यवर्ती) असंख्यात समुद्रों में सासादन सम्यग्दृष्टि जीव नहीं होते। यद्यपि वैर भाव रखने वाले व्यंतर देवों के द्वारा हरण करके ले जाये गये जीवों की वहाँ सम्भावना है किन्तु वे वहाँ पर स्वस्थान स्वस्थान स्थान नहीं कहलाते हैं, क्योंकि उस समय वे विहार रूप से परिणत हो जाते हैं। सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में मरणान्तिक समुद्घात और उपपाद नहीं होते हैं क्योंकि इस गुणस्थान का इन दोनों प्रकार की अवस्थाओं के साथ विरोध है। स्वस्थान – स्वस्थान, विहारवत् स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियक समुद्घात तथा उपपाद यह सातों ही पद यहाँ असंयत सम्यग्दृष्टि में सम्भव हैं। प्रश्न – संयता संयतों के वैक्रियक समुद्घात कैसे सम्भव है? उत्तर- नहीं, क्योंकि विष्णुकुमार मुनि महाराज आदि में विक्रियात्मक औदारिक शरीर देखा जाता है। प्रश्न- मानुषोत्तर पर्वत से परभागवर्ती व स्वयंप्रभाचल से पूर्वभागवर्ती शेष द्वीप समुद्रों में संयतासंयत जीवों की सम्भावना कैसे है ? उत्तरनहीं, क्योंकि पूर्व भव के वैरी देवों के द्वारा वहाँ ले जाये गए तिर्यंच संयतासंयत जीवों की सम्भावना की अपेक्षा कोई विरोध नहीं है। यह सब कथन संयतासंयत जीव की अपेक्षा से है। प्रमत्तसंयतों में अप्रमत्तसंयत की अपेक्षा आहारक व तैजस समुद्घात अधिक है। केवल इतना अन्तर है। उपशम श्रेणी के चारों गुणस्थानवर्ती उपशामक जीव स्वस्थान – स्वस्थान और मारणान्तिक समुद्घात इन दोनों पदों में प्रमत्ततसंयतों के समान होते हैं। इन जीवों में उक्त स्थानों के अतिरिक्त शेष स्थान नहीं होते हैं। क्षपकश्रेणी के चार गुणस्थानवर्ती क्षपक जीवों का स्वस्थान – स्वस्थान प्रमत्तसंयतों के समान होता है। प्रश्न – मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीव समुद्रों में दर्शन मोहनीय की क्षपणा का कैसे प्रस्थापन करते है ? उत्तर- क्योंकि विद्या आदि के वश से समुद्रों में आये हुए जीवों के दर्शनमोह का क्षपण होना सम्भव है। संयोगकेवली का स्वस्थान- स्वस्थान और विहार वत्स्वस्थान क्षेत्र प्रमत्त संयतों के समान होता है। अयोगकेवली के विहारवत स्वस्थानादि शेष अशेष पद सम्भव न होने से वे स्वस्थान – स्वस्थान पद में रहते हैं।