कृतिकर्म
1. अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य और बहुश्रुतवान् साधु की वंदना करते समय जो विनय आदि की जाती है, उसे कृतिकर्म कहते हैं अथवा जिससे आठ कर्मों का उच्छेद हो, वह कृतिकर्म है। आत्माश्रित होकर तीन बार प्रदक्षिणा करना, तीन बार अवनति(नमस्कार) करना, चार बार सिर झुकाना और बारह आवर्त करना ये सब कृतिकर्म कहलाते हैं। पाँच महाव्रतों के आचरण में लीन धर्म में उत्साह वाला उद्यमी, मान कषाय रहित निर्जरा करने में रुचि रखने वाला तथा दीक्षा में अन्य साधुओं से जो छोटा है ऐसा संयमी कृतिकर्म को करता है। चारित्र सम्पन्न मुनि की अपने गुरु की और अपने से बड़े मुनियों की विनय करना सेवा शुश्रुषा करना – इसको कृतिकर्म स्थितिकल्प कहते हैं । 2. जिसमें अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य और साधु की पूजा विधि का वर्णन है, वह कृतिकर्म नाम का अंगबाह्य है। –