कल्प
जिनमें इन्द्र आदि इस प्रकार के भेदों की कल्पना की जाती हैं वे कल्प कहलाते हैं। इस प्रकार इन्द्रादि की कल्पना ही कल्प संज्ञा का कारण है। यद्यपि इन्द्रादि की कल्पना भवनवासियों में भी सम्भव है फिर भी रूढ़ि से कल्प शब्द का व्यवहार वैमानिकों में ही किया जाता है वे दो प्रकार के हैं- कल्पोपपन्न (कल्पवासी) और कल्पातीत । जो कल्पों में उत्पन्न होते हैं वे, अर्थात् सोलह स्वर्ग तक के देव कल्पोपपन्न कहलाते हैं और जो कल्पों से परे हैं वे कल्पातीत कहलाते हैं। नवग्रैवेयक नव अनुदिश और पंच अनुत्तर ये सब कल्पातीत कहलाते हैं इनमें इन्द्रियादि की कल्पना नहीं है यह सब देव अहमिन्द्र हैं।