कदलीघात
विष खा लेने से, वेदना से, रक्त का क्षय होने से, तीव्र भय से, शस्त्रघात से, संक्लेश की अधिकता से, आहार और श्वासोच्छवास के रुक जाने से आयु सहसा क्षीण हो जाती है इस प्रकार जो मरण होता है उसे कदलीघात मरण कहते हैं । परभव सम्बन्धी आयु के बंधने के पश्चात् भुज्यमान आयु का कदलीघात नहीं होता। देव और नारकियों में भी आयु का कदलीघात नहीं होता। असंख्यात वर्ष की आयु वाले जीव अर्थात् भोगभूमिज मनुष्य व तिर्यंच अनपवर्त्य आयु वाले होते हैं अर्थात् उसकी भी अकाल मृत्यु या कदलीघात मरण नहीं होता। अंतिम उत्तम देह वाले तीर्थंकरों का भी कदलीघात मरण नहीं होता। शेष सभी के कदलीघात संभव है। जैसे पयाल आदि के द्वारा आम आदि को समय से पहले ही पका दिया जाता है उसी तरह निश्चित मरण काल से पहले भी उदीरणा के कारणों से आयु का अपवर्तन हो जाता है। अप्राप्त काल मरण अर्थात् अकाल मरण का अभाव नहीं है क्योंकि खड्ग आदि के प्रहार से मरण देखा जाता है। अकाल मरण का अभाव कहना युक्त नहीं है, क्योंकि कितने ही कर्मभूमिज मनुष्यों में अकाल मृत्यु है। उसका अभाव कहना असत्य वचन है। क्योंकि यहाँ सत्य पदार्थ का निषेध किया गया है। आयुर्वेद शास्त्र में अकाल मृत्यु के निवारण के लिए औषधि प्रयोग बनाए गए हैं क्योंकि दवाओं के द्वारा श्लेष्मादि दोषों को बलात् निकाल दिया जाता है अतः यदि अकालमृत्यु न मानी जाए तो रसायनादि का उपदेश व्यर्थ हो जाएगा। उसे केवल दुख निवृत्तिका हेतु कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि उसके दोनों ही फल देखे जाते हैं जैसे गीला कपड़ा फैला देने पर जल्दी सूख जाता है वही यदि इकट्ठा रखा रहे तो सूखने में बहुत समय लगता है उसी प्रकार उदीरणा के निमित्तों के द्वारा समय से पहले ही आयु झड़ जाती है।