उपशम श्रेणी
जहाँ मोहनीय कर्म का उप करता हुआ आत्मा आगे बढ़ता है वह उपशम श्रेणी है। उपशम श्रेणी चढ़ने वाले जीव के औपशमिक या क्षायिक भाव होता है क्योंकि जिसने दर्शन मोहनीय का उपशम अथवा क्षय नहीं किया है वह उपशम श्रेणी पर नहीं चढ़ सकता । औपशमिक चारित्र मोक्ष का साक्षात् कारण नहीं है । अतः उपशम श्रेणी चढ़ने वाला जीव नियम से नीचे उतरता है। संक्लेश या विशुद्धि उपकषाय से गिरने में कारण नहीं है वहाँ से गिरने का कारण तो आयु या काल क्षय ही है। उपशान्त कषाय के काल में आयु के पूर्ण होने से मरकर जीव देव पर्याय सम्बन्धी असंयत गुणस्थान में गिरता है और आयु के शेष रहने पर अन्तर्मुहूर्त मात्र उपशान्त कषाय का काल समाप्त होने पर वह उपशामक गिरकर नियम से सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान को प्राप्त होता है फिर वहाँ से अनिवृत्तिकरण को प्राप्त होता है। इसके पश्चात् क्रम से अपूर्वकरण व अप्रमत्त संयत गुणस्थान को प्राप्त होता है यहाँ तक यही क्रम निश्चित है। आगे यदि विशुद्धि हो तो ऊपर पुनः चढ़ता है यदि संक्लेश युक्त हो तो नीचे गुणस्थान को प्राप्त होता है इसका कोई नियम नहीं है। उपशम श्रेणी से नीचे उतरे हुए जीव के वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त हुए बिना पहले वाले उपशम सम्यक्त्व के द्वारा पुनः उपशम श्रेणी पर आरोहण संभव नहीं है कोई जीव अधिकतम चार बार उपशम श्रेणी चढ़ सकता है उसके उपरान्त अवश्य कर्मों का क्षय होता है।