ईश्वरवाद
(मिथ्या एकान्त की अपेक्षा) आत्मा अज्ञानी है, अनाथ है, उस आत्मा के सुख-दुख, स्वर्ग-नरकादि गमनागमन सब ईश्वरकृत हैं, ऐसा मानना सो ईश्वरवाद का अर्थ है। (सम्यगेकान्त की अपेक्षा) लोकमत में विष्णु कर्त्ता है वैसे ही श्रमणों के मत में आत्मा करता है। हे जीव ! यह आत्मा पंगु के समान है। वह कहीं न आता है न जाता है। तीनों लोकों में जीव को कर्म ही ले जाता है, कर्म ही लाता है। आत्मद्रव्य ईश्वरनय से परतन्त्रता भोगने वाला है । धाय की दुकान पर दूध पिलाये जाने वाले राहगीर के बालक की भाँति । भारतीय दर्शनों में चार्वाक, बौद्ध, जैन, मीमांसक, सांख्य, और योगदर्शन तथा वर्तमान का पाश्चात्य जगत इस प्रकार के सृष्टि रचयिता किसी एक ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता परन्तु न्याय और वैशेषिक दर्शनों में ईश्वर को सृष्टि का रचयिता माना गया है।