ईयापथ कर्म
जिन कर्मों का आस्रव होता है पर बन्ध नहीं होता उन्हें ईर्यापथ कर्म कहते हैं। आने के अगले क्षण में ही बिना फल दिये वे झड़ जाते हैं अतः इनमें एक समय मात्र की स्थिति अधिक नहीं मोह का सर्वथा उपशम अथवा क्षय हो जाने पर ही ऐसे कर्म आते हैं 10वें गुणस्थानों तक जब तक मोह का किंचित भी सद्भाव है तब तक ईर्यापथ कर्म सम्भव नहीं, क्योंकि कषाय के सद्भाव में स्थिति बन्ध का नियम है जो छद्मस्थ वीतरागी के और सयोगकेवलियों के होता है, वह सब ईर्यापथ कर्म है। कषाय सहित और कषाय रहित आत्मा का योग साम्परायिक और ईर्यापथ कर्म के आस्रव हैं। ईर्या की उत्पत्ति ईरण होती है, उसका अर्थ गति है। उपशान्त कषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली के योग से आये हुए कर्म, कषायों की चेप न होने से सूखी दीवार पर पड़े हुए पत्थर की तरह द्वितीय क्षण में ही झड़ जाते हैं, बंधते नहीं हैं यह ईर्यापथ आस्रव कहलाता है। योग मात्र के कारण जो कर्म बनता है यह ईर्यापथ कर्म है यह उक्त कथन का तात्पर्य है। वह ईर्यापथ कर्म कल्प है, बादर है, मृदु है, बहुत है, रूक्ष है, शुक्ल है, मंद है अर्थात् मधुर है, महान व्यय वाला है और अत्यधिक साता रूप है, उसे गृहीत बद्ध होकर भी अबद्ध, स्पृष्ट होकर भी अस्पृष्ट, उदित होकर भी अनुदित और वेदित होकर भी अवेदित जानना व निर्जरित होकर भी अनिर्जरित, नहीं है और उदीदित और भी अनुदीदित है। इस प्रकार ये ईर्यापथ का लक्षण है। प्रश्न – ईर्यापाथ कर्म का लक्षण कहते समय शेष कर्मों के (गोत्र आदि) के कर्मों के व्यापार का कथन क्यों किया जा रहा है ? उत्तर- क्योंकि ईर्यापथ का लक्षण घटित हो जाता है। जल के नीचे पड़े हुए तप्तलोह पिण्ड के समान ईर्यापथ कर्मरूपी जल को अपने सर्वप्रदेशों से केवलीजन परमात्मा के समान कैसे हो सकते है ऐसी पूछने पर इसका निर्णय करने के लिए यह कहा गया है कि ईर्यापथ कर्म गृहीत होकर भी गृहीत नहीं है क्योंकि सरागी के द्वारा ग्रहण किए कर्म के समान पुनर्जन्म रूप संसार फल को उत्पन्न करने वाली शक्ति से रहित है।