विशुद्ध
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विशुद्ध कर्म का कार्य होने से आहारक शरीर को विशुद्ध कहा है। तात्पर्य यह है कि चित्र-विचित्र न होकर निर्दोष हो, ऐसे विशुद्ध पुण्य कर्म का कार्य होने के कारण आहारक शरीर को ही विशुद्ध कहते हैं। यहाँ कार्य कारण का उपचार है। जैसे— तन्तुओं में कपास का उपचार करके तंतुओं को भी कपास कहते हैं ।
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