बाह्य तप
बाह्यजन और अन्य मतवाले और गृहस्थ भी जो कि इन तपों को करते हैं, इसलिए इनको बाह्य तप कहते हैं। अनशन, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान,, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश ये छः प्रकार का बाह्य तप है। घोर तपश्चरण करता हुआ भी और सब शास्त्रों को जानता हुआ भी जो परम समाधि से रहित है वह शान्त रूप शुद्धात्मा को नहीं देख सकता है। अभ्यन्तर तप के लिए ही बाह्य तप है, अतः अभ्यन्तर तप प्रधान है यह कर्म निर्जरा करने में असमर्थ है। जो बाह्य तप तो करे और अंतरंग तप न हो तो उपचार तैं भी बाको तप संज्ञा नहीं है तप भए अंतरंग तप की वृद्धि हो गये तातें उपचार करि इनको तप कहे हैं। अभ्यन्तर परिणाम शुद्धि का अनशनादि बाह्य तप चिन्ह है। जैसे के मन में मनुष्य जब क्रोध उत्पन्न होता है तब उसकी भोहें चढ़ती हैं इस प्रकार इन तपों में लिंग लिंगी भाव है।