प्रमाण
स्व पर प्रकाशक सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहते हैं मति श्रुत आदि पाँचों ही ज्ञान प्रमाण हैं अथवा जिसके द्वारा पदार्थ जाना जाता है उसे प्रमाण कहते हैं। प्रमाण के दो भेद हैं- प्रत्यक्ष व परोक्ष। स्वार्थ व परार्थ ऐसे प्रमाण के दो भेद भी हैं। ज्ञानात्मक प्रमाण को स्वार्थ प्रमाण कहते हैं और वचनात्मक प्रमाण परोक्ष प्रमाण कहलाता है। श्रुतज्ञान को छोड़कर शेष सब ज्ञान स्वार्थ प्रमाण हैं परन्तु श्रुतज्ञान परार्थ और स्वार्थ दोनों प्रकार का है। इस प्रकार स्वार्थ और परार्थ प्रमाण भी प्रत्यक्ष व परोक्ष में अन्तर्भूत हैं। प्रमाण अर्थात् सम्यग्ज्ञान ही हित की प्राप्ति और अहित के परिहार करने में समर्थ है अज्ञान की निवृत्ति, द्वेष का त्याग, उपादेय का ग्रहण और रागद्वेष की हानि रूप उपेक्षा भाव यह प्रमाण का फल है अथवा पदार्थ का ज्ञान होने पर प्रीति देखी जाती है वह भी प्रमाण का फल है।