प्रदोष
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तत्त्वज्ञान के प्रति हर्ष का भाव नहीं होना प्रदोष है। मोक्ष के साधनभूत तत्त्वज्ञान का गुणगान करते समय उसकी प्रशंसा नहीं करना उसे सुनकर मौन रहना और भीतर भीतर पैशून्य रूप परिणाम होना प्रदोष है। इससे ज्ञानावरणी दर्शनावरणीय कर्म का बंध होता है।
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