निर्जरा
जिस प्रकार आम आदि फल पककर वृक्ष से हो जाते हैं, उसी प्रकार आत्मा को भला-बुरा पृथक् फल देकर कर्मों का झड़ जाना निर्जरा है। यह दो प्रकार की है- सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा । पूर्वबद्ध कर्मों का झड़ना निर्जरा है। जिस प्रकार भात आदि का मल निवृत्त होकर निर्जीण हो जाता है उसी प्रकार आत्मा का भला बुरा करके पूर्व प्राप्त स्थिति का नाश हो जाने के कारण कर्म की निवृत्ति का होना निर्जरा है। भाव निर्जरा, द्रव्य निर्जरा के भेद से दो प्रकार है। जीव के जिन शुद्ध परिणामों से पुद्गल कर्म झड़ते हैं वे जीव के परिणाम भाव निर्जरा हैं। जो कर्म झड़ते हैं वह द्रव्य निर्जरा है | निर्जरा दो प्रकार की भी होती हैं- विपाकज और अविपाकज। क्रम से परिपाककाल को प्राप्त हुए और अनुभव रूपी उदयावली के स्रोत में प्रविष्ट हुए ऐसे शुभ अशुभ कर्म की फल देकर जो निवृत्ति होती है वह विपाकज निर्जरा है और आम और पनस को औपक्रमिक क्रिया विशेष के द्वारा जिस प्रकार अकाल में पका लेते हैं उसी प्रकार विपाककाल अभी नहीं प्राप्त हुआ है तथा जो उदयावली से बाहर स्थित है, ऐसे कर्म को तप आदि औपक्रमिक क्रिया विशेष की सामर्थ्य से उदयावली में प्रविष्ट करा के अनुभव किया जाता है, वह अविपाकज निर्जरा है।