ज्ञान कल्याणक
तीर्थंकरों के केवलज्ञान के अवसर पर होने वाला उत्सव ज्ञान-कल्याणक कहलाता है। जब चार घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने पर तीर्थंकर को केवल ज्ञान की प्राप्ति होती है, तब पुष्प वृष्टि, दुन्दुभी अशोकवृक्ष, चमर, भामण्डल, छत्रत्रय, स्वर्ण सिंहासन और दिव्यध्वनि ये आठ प्रातिहार्य प्रगट होते हैं इन्द्र की आज्ञा से कुबेर समवसरण की रचना करता है, जिसे देखकर सारा जगत् चकित होता है बारह सभाओं में यथास्थान देव, मनुष्य, तिर्यंच, मुनि आर्यिका श्रावक-श्राविका आदि सभी बैठकर तीर्थंकर के उपदेशामृत का पान करके अपना जीवन सफल बनाते हैं। तीर्थंकर का विहार बड़ी धूमधाम से होता है। याचकों को इच्छानुरूप दान दिया जाता है, तीर्थंकर के चरणों के नीचे देवगण सहस्रदल सुवर्ण कमलों की रचना करते हैं और भगवान इनको भी स्पर्श न करते हुए आकाश में ही चलते हैं आगे-आगे धर्मचक्र चलता है, विविध प्रकार के वाद्ययंत्र बजते हैं, पृथिवी संकट व भय से रहित हो जाती है। इन्द्र राजाओं के साथ आगे-आगे जय-जयकार करते चलते हैं। मार्ग में सुन्दर क्रीड़ास्थल बनाए जाते हैं, मार्ग अष्टमंगल द्रव्यों से शोभित होता है ऋषिगण पीछे-पीछे चलते हैं इन्द्र प्रतिहार बनता है, अनेकों निधियाँ साथ-साथ चलती हैं, विरोधी जीव वैरविरोध भूल जाते हैं, अन्धे-बहरे भी देखने और सुनने लगते हैं, अत्यन्त सुखद और आत्मीय वातावरण निर्मित हो जाता है।