जुगुप्सा
1. जिस कर्म के उदय से अपने दोषों का संवरण(ढंकना) और दूसरे के दोषों का आविष्करण (प्रगट करना) होता है, वह जुगुप्सा है अथवा अपने दोषों को ढांकना जुगुप्सा है तथा दूसरे के कुल शील है आदि में दोष लगाना, आक्षेप करना या भर्त्सना करना कुत्सा है। कुत्सा, ग्लानि और जुगुप्सा एकार्थवाची हैं। 2. ग्लानि होने को जुगुप्सा कहते हैं। जिन कर्मों के उदय से ग्लानि होती है उनकी जुगुप्सा संज्ञा है। ‘जुगुप्सा’ एक नोकषाय है यह द्वेष रूप है। 3. क्षुधा आदि बाईस परीषहों में संक्लेश परिणाम करना भाव विचिकित्सा या जुगुप्सा है। 4. रत्नत्रय में से किसी एक में अथवा रत्नत्रय के आराधकों में क्रोधादि वश जुगुप्सा होना सम्यग्दर्शन का अतिचार है क्योंकि इसके वशीभूत मनुष्य अन्य सम्यग्दृष्टि जीवों के ज्ञान, दर्शन व आचरण का तिरस्कार करता है तथा निरतिचार सम्यग्दृष्टि का भी तिरस्कार करता है अतः रत्नत्रय के माहात्म्य में अरुचि होने रूप जुगुप्सा को सम्यग्दर्शन का अतिचार जानना चाहिए।