जीव बंध
एक शरीर में स्थित अनंतानंत निगोद जीव और जिस कर्म के कारण से वे इस प्रकार रहते हैं, वह कर्म भी जीव बंध है। भावबंध रूप जीव बंध है, जो वियोगमय जीव विविध विषयों को प्राप्त करके मोह, राग-द्वेष करता है, वह जीव उनके द्वारा बंध रूप है। कर्म को परतंत्र करने वाले आत्म परिणामों का नाम बंध हैं। जिस मोह- राग-द्वेष रूप भाव से देखता और जानता है उसी से उपरक्त होता है। यह तो उपराग है। यह वास्तव में स्निग्ध, रूक्षत्व स्थानीय भावबंध है। जीव का औपादिक मोह- राग-द्वेष रूप पर्याय के साथ जो एकत्व परिणाम है, सो केवल जीव बंध है।