गोत्र कर्म
1. जिस कर्म के उदय से जीव उच्च या नीच कहा जाता है वे गोत्र कर्म है। 2. जिस कर्म के उदय से जीव उच्च या नीच कुल में उत्पन्न होता है उसे गोत्र कर्म कहते हैं। गोत्र, कुल, वंश और सन्तान ये सब एकार्थवाची शब्द हैं सन्तान क्रम से चला आया जो आचरण है, उसकी भी गोत्र संज्ञा है छोटे-बड़े घट आदि को बनाने वाले कुम्भकार की भाँति उच्च तथा नीच कुल का करना गोत्र कर्म की प्रकृति है। गोत्र कर्म की दो प्रकृतियाँ हैं- उच्च गोत्र और नीच गोत्र। जिसके उदय से लोक पूजित कुलों में जन्म होता है वह उच्च गोत्र है और जिसके उदय से गर्हित या निन्दित कुलों में जन्म होता है वह नीच गोत्र है। लोक पूजित कुलों से तात्पर्य महत्वशाली इक्ष्वाकु, उग्र, कुरू हरि और ज्ञाति आदि वंशों में जन्म होने से है तथा निंद्य कुल से तात्पर्य दरिद्र, अप्रसिद्ध और दुःखाकुल कुलों में जन्म लेना अथवा जिनका दीक्षा योग्य साधु आचार है, साधु आचार वालों के साथ जिन्होंने सम्बन्ध स्थापित किया है तथा जो ‘आर्य’ इस प्रकार के ज्ञान और वचन व्यवहार के निमित्त है उन पुरूषों की परम्परा को उच्च गोत्र कहा गया है और उससे विपरीत कर्म नीच गोत्र है। नारकी और तिर्यंचों के नीच गोत्र का उदय होता है संयमासंयम को पालने वाले तिर्यंचों में कदाचित् उच्च गोत्र पाया जाता है यह भी एकमत है। देव और भोग भूमिज मनुष्यों में उच्च गोत्र का उदय रहता है परन्तु कर्म भूमिज मनुष्यों का जन्म दोनों प्रकार के गोत्र में होता है ।